परशुराम जयंती (अक्षय तृतीया)

webmaster
By -
0

परशुराम जयंती (अक्षय तृतीया)

हिंदू पंचांग के अनुसार वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है।इस पावन तिथि को परशुराम जयंती भी कहते हैं क्योंकि इस दिन भगवान परशुराम का जन्म हुआ था यह तिथि 8 चिरंजीवियों में से एक भगवान परशुराम की जन्म तिथि है, इसीलिए इसे चिरंजीवी तिथि भी कहते हैं,।भगवान परशुराम विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार हैं , जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिने जाते है।भागवत अनुसार हैहयवंश राजाओं के निग्रह के लिए अक्षय तृतीया के दिन परशुराम का जन्म हुआ। पूर्व के अवतारों के समान इनके नामका स्वतंत्र पुराण नहीं है -

अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः ।

इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ।।

 

अर्थ : चार वेद मौखिक हैं अर्थात् पूर्ण ज्ञान है एवं पीठपर धनुष्य-बाण है अर्थात् शौर्य है । अर्थात् यहां ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज, दोनों हैं । जो कोई इनका विरोध करेगा, उसे शाप देकर अथवा बाणसे परशुराम पराजित करेंगे । ऐसी उनकी विशेषता है ।

 

परशुराम जी शास्त्र एवम् शस्त्र विद्या के ज्ञाता थे. प्राणी मात्र का हित ही उनका सर्वोपरि लक्ष्य रहा।दस महाविद्याओं में भगवती पीतांबरा (बगलामुखी) के अनन्य साधक परशुरामजी ने अपनी शक्ति का प्रयोग सदैव कुशासन के विरुद्ध किया। परशुराम तेजस्वी, ओजस्वी, वर्चस्वी महापुरूष रहे। परशुराम अन्याय का निरन्तर विरोध करते रहे उन्होंने दुखियों, शोषितों और पीड़ितों की हर प्रकार से रक्षा व सहायता की। 

 

वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-

ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।

 

उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। विश्वकर्मा के अभिमंत्रित दो दिव्य धनुषों की प्रत्यंचा पर केवल परशुराम ही बाण चढ़ा सकते थे। यह उनकी अक्षय शक्ति का प्रतीक था, यानी शस्त्रशक्ति का|अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।

ऐसे हुआ भगवान परशुराम का जन्म

महर्षि भृगु के पुत्र ऋचिक का विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती से हुआ था। विवाह के बाद सत्यवती ने अपने ससुर महर्षि भृगु से अपने व अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की। तब महर्षि भृगु ने सत्यवती को दो फल दिए और कहा कि ऋतु स्नान के बाद तुम गूलर के वृक्ष का तथा तुम्हारी माता पीपल के वृक्ष का आलिंगन करने के बाद ये फल खा लेना।

किंतु सत्यवती व उनकी मां ने भूलवश इस काम में गलती कर दी। यह बात महर्षि भृगु को पता चल गई। तब उन्होंने सत्यवती से कहा कि तूने गलत वृक्ष का आलिंगन किया है। इसलिए तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय गुणों वाला रहेगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों की तरह आचरण करेगा। 

तब सत्यवती ने महर्षि भृगु से प्रार्थना की कि मेरा पुत्र क्षत्रिय गुणों वाला न हो भले ही मेरा पौत्र (पुत्र का पुत्र) ऐसा हो। महर्षि भृगु ने कहा कि ऐसा ही होगा। कुछ समय बाद जमदग्रि मुनि ने सत्यवती के गर्भ से जन्म लिया। इनका आचरण ऋषियों के समान ही था। इनका विवाह राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका से हुआ। 

मुनि जमदग्नि व रेणुका की पांचवीं सन्तान रूप में परशुराम पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं इनके चार बड़े भाई रूमण्वन्त, सुषेण, विश्व और विश्वावसु थे इस प्रकार एक भूल के कारण भगवान परशुराम का स्वभाव क्षत्रियों के समान था। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं।

 

राम से  बने परशुराम

बाल्यावस्था में परशुराम के माता-पिता इन्हें राम कहकर पुकारते थे। जब राम कुछ बड़े हुए तो उन्होंने पिता से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया और पिता के सामने धनुर्विद्या सीखने की इच्छा प्रकट की। महर्षि जमदग्रि ने उन्हें हिमालय पर जाकर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। पिता की आज्ञा मानकर राम ने ऐसा ही किया। उस बीच असुरों से त्रस्त देवता शिवजी के पास पहुंचे और असुरों से मुक्ति दिलाने का निवेदन किया। तब शिवजी ने तपस्या कर रहे राम को असुरों को नाश करने के लिए कहा।

 

राम ने बिना किसी अस्त्र की सहायता से ही असुरों का नाश कर दिया। राम के इस पराक्रम को देखकर भगवान शिव ने उन्हें अनेक अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए। इन्हीं में से एक परशु (फरसा) भी था। यह अस्त्र राम को बहुत प्रिय था। इसे प्राप्त करते ही राम का नाम परशुराम हो गया।

शास्त्रों में संदर्भ

 

किया श्रीगणेश से युद्ध

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, एक बार परशुराम जब भगवान शिव के दर्शन करने कैलाश पहुंचे तो भगवान ध्यान में थे। तब श्रीगणेश ने परशुरामजी को भगवान शिव से मिलने नहीं दिया। इस बात से क्रोधित होकर परशुरामजी ने फरसे से श्रीगणेश पर वार कर दिया। वह फरसा स्वयं भगवान शिव ने परशुराम को दिया था। श्रीगणेश उस फरसे का वार खाली नहीं होने देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने उस फरसे का वार अपने दांत पर झेल लिया, जिसके कारण उनका एक दांत टूट गया। तभी से उन्हें एकदंत भी कहा जाता है।

 

किया माता का वध

एक बार परशुराम की माता रेणुका स्नान करके आश्रम लौट रही थीं। तब संयोग से राजा चित्ररथ भी वहां जलविहार कर रहे थे। राजा को देखकर रेणुका के मन में विकार उत्पन्न हो गया। उसी अवस्था में वह आश्रम पहुंच गई। जमदग्रि ने रेणुका को देखकर उसके मन की बात जान ली और अपने पुत्रों से माता का वध करने को कहा। किंतु मोहवश किसी ने उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया।

 

तब परशुराम ने बिना सोचे-समझे अपने फरसे से उनका सिर काट डाला। ये देखकर मुनि जमदग्रि प्रसन्न हुए और उन्होंने परशुराम से वरदान मांगने को कहा। तब परशुराम ने अपनी माता को पुनर्जीवित करने और उन्हें इस बात का ज्ञान न रहे ये वरदान मांगा। इस वरदान के फलस्वरूप उनकी माता पुनर्जीवित हो गईं।

 

 

किया क्षत्रियों का संहार

एक बार महिष्मती देश का राजा कार्तवीर्य अर्जुन युद्ध जीतकर जमदग्रि मुनि के आश्रम से निकला। तब वह थोड़ा आराम करने के लिए आश्रम में ही रुक गया। उसने देखा कामधेनु ने बड़ी ही सहजता से पूरी सेना के लिए भोजन की व्यवस्था कर दी है तो वह कामधेनु के बछड़े को अपने साथ बलपूर्वक ले गया। जब यह बात परशुराम को पता चली तो उन्होंने कार्तवीर्य अर्जुन की एक हजार भुजाएं काट दी और उसका वध कर दिया।

 

कार्तवीर्य अर्जुन के वध का बदला उसके पुत्रों ने जमदग्रि मुनि का वध करके लिया। क्षत्रियों का ये नीच कर्म देखकर भगवान परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने कार्तवीर्य अर्जुन के सभी पुत्रों का वध कर दिया। जिन-जिन क्षत्रिय राजाओं ने उनका साथ दिया, परशुराम ने उनका भी वध कर दिया। इस प्रकार भगवान परशुराम ने 21 बार धरती को क्षत्रियविहिन कर दिया।

 

ब्राह्मणों को दान 

महाभारत के अनुसार परशुराम का ये क्रोध देखकर महर्षि ऋचिक ने साक्षात प्रकट होकर उन्हें इस घोर कर्म से रोका। तब उन्होंने क्षत्रियों का संहार करना बंद कर दिया और सारी पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी और स्वयं महेंद्र पर्वत पर निवास करने लगे।

 

रामायण में संदर्भ

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस में वर्णन है कि भगवान श्रीराम ने सीता स्वयंवर में शिव धनुष उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। धनुष टूटने की आवाज सुनकर भगवान परशुराम भी वहां आ गए। अपने आराध्य शिव का धनुष टूटा हुआ देखकर वे बहुत क्रोधित हुए और वहां उनका श्रीराम व लक्ष्मण से विवाद भी हुआ। जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार, सीता से विवाह के बाद जब श्रीराम पुन: अयोध्या लौट रहे थे। तब परशुराम वहां आए और उन्होंने श्रीराम से अपने धनुष पर बाण चढ़ाने के लिए कहा। श्रीराम ने बाण धनुष पर चढ़ा कर छोड़ दिया। यह देखकर परशुराम को भगवान श्रीराम के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया और वे वहां से चले गए।

 

श्रीराम द्वारा धनुष तोड़ने के बाद समस्त राजाओं की दुरभिसंधि हुई कि श्रीराम ने धनुष तो तोड़ लिया है लेकिन इन्हें सीता स्वयंवर से रोकना होगा। अत: अपनी-अपनी सेनाओं की टु‍कड़ियों के साथ धनुष यज्ञ में आए समस्त राजा एकजुट होकर श्रीराम से युद्ध के लिए कमर कसकर तैयार हो गए। धनुष यज्ञ गृहयुद्ध में बदलने वाला था, ऐसी विकट स्थि‍ति में वहां अपना फरसा लहराते हुए परशुरामजी प्रकट हो जाते हैं। 

 

वे राजा जनक से पूछते हैं कि तुरंत बताओ कि यह शिव धनुष किसने तोड़ा है अन्यथा जितने भी राजा यहां बैठे हैं मैं क्रमश: उन्हें अपने परशु की भेंट चढ़ाता हूं। तब श्रीराम विनम्र भाव से कहते हैं- हे नाथ, शंकर के धनुष को तोड़ने वाला कोई आपका ही दास होगा। परशुराम-राम संवाद के बीच में ही लक्ष्मण उत्तेजित हो उठे। विकट लीला प्रारंभ हो गई। संवाद चलते रहे। लीला आगे बढ़ती रही। 

 

परशुरामजी ने श्रीराम से कहा- अच्‍छा, मेरे विष्णु धनुष में तीर चढ़ाओ। तीर चढ़ गया, परशुरामजी ने प्रणाम किया और कहा- मेरा कार्य अब पूरा हुआ, आगे का कार्य करने के लिए श्रीराम आप आ गए हैं। गृहयुद्ध टल गया। सारे राजाओं ने श्रीराम को अपना सम्राट मान लिया, भेंट पूजा की एवं अपनी-अपनी राजधानी लौट गए। 

 

श्रीराम के केंद्रीय शासन नियमों से धर्मयुक्त राज्य करने लगे। देश में शांति छाने लगी। अब श्रीराम निश्चिंत थे, क्योंकि उन्हें तो देश की सीमाओं के पार संचालित आतंक के खिलाफ लड़ना था इसीलिए अयोध्या आते ही वन को चले गए। पंचवटी में लीला रची गई, लंका कूच हुआ। रावण का कुशासन समाप्त हुआ। राम राज्य की स्थापना हुई। अत: रामराज्य की भूमिका तैयार करने वाले भगवान परशुराम ही थे।

 

 

महाभारत में संदर्भ

 

भीष्म से युद्ध 

महाभारत के अनुसार, महाराज शांतनु के पुत्र भीष्म ने भगवान परशुराम से ही अस्त्र-शस्त्र की विद्या प्राप्त की थी। एक बार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की पुत्रियों अंबा, अंबिका और बालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे। तब अंबा ने भीष्म को बताया कि वह मन ही मन राजा शाल्व को अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे ससम्मान छोड़ दिया, लेकिन हरण कर लिए जाने के लिए शाल्व ने अंबा को अस्वीकार कर दिया।

तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा, लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ और अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत।

 

कर्ण को शस्त्र विद्या

महाभारत के अनुसार परशुराम भगवान विष्णु के ही अंशावतार थे। कर्ण भी उन्हीं का शिष्य था। कर्ण ने परशुराम को अपना परिचय एक ब्राह्मण पुत्र के रूप में दिया था। एक बार जब परशुराम कर्ण की गोद में सिर रखकर सो रहे थे। उसी समय कर्ण को एक भयंकर कीड़े ने काट लिया। गुरु की नींद में विघ्न न आए ये सोचकर कर्ण दर्द सहते रहे, लेकिन उन्होंने परशुराम को नींद से नहीं उठाया।

नींद से उठने पर जब परशुराम ने ये देखा तो वे समझ गए कि कर्ण ब्राह्मण पुत्र नहीं बल्कि क्षत्रिय है। तब क्रोधित होकर परशुराम ने कर्ण को श्राप दिया कि मेरी सिखाई हुई शस्त्र विद्या की जब तुम्हें सबसे अधिक आवश्यकता होगी, उस समय तुम वह विद्या भूल जाओगे। इस प्रकार परशुरामजी के श्राप के कारण ही कर्ण की मृत्यु हुई।

 

संधि प्रस्ताव 

महाभारत के युद्ध से पहले जब भगवान श्रीकृष्ण संधि का प्रस्ताव लेकर धृतराष्ट्र के पास गए थे, उस समय श्रीकृष्ण की बात सुनने के लिए भगवान परशुराम भी उस सभा में उपस्थित थे। परशुराम ने भी धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण की बात मान लेने के लिए कहा था।

 

 

 

आज भी  हैं परशुराम

 

हिंदू धर्म ग्रंथों में कुछ महापुरुषों का वर्णन है जिन्हें आज भी अमर माना जाता है। इन्हें अष्टचिरंजीवी भी कहा जाता है। इनमें से एक भगवान विष्णु के आवेशावतार परशुराम भी हैं-

अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण।

कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन।।

सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।

जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

इस श्लोक के अनुसार अश्वत्थामा, राजा बलि, महर्षि वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, भगवान परशुराम तथा ऋषि मार्कण्डेय अमर हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान परशुराम वर्तमान समय में भी कहीं तपस्या में लीन हैं।

 

Wallpaper

  •  

Parshuram Geometric Art Wallpaper

Lord Parshuram Silver Statue Wallpaper

3d Parshuram Cloudy Backdrop Wallpaper

Lord Parshuram Hunter Wallpaper

Hindu Lord Parshuram Wallpaper

Lord Parshuram Floral Design Wallpaper

Fearless Parshuram Sketch Wallpaper

Parshuram At Forest Wallpaper

Parshuram Bokeh Background Wallpaper

Parshuram Fiery Smoke Wallpaper

God Parshuram Forest Wallpaper

Parshuram Jayanti Poster Wallpaper

Happy Parshuram Jayanti Wallpaper

Parshuram Space Background Wallpaper

Parshuram Comic Art Wallpaper

Parshuram Fantasy Art Wallpaper

Parshuram Ocean Background Wallpaper

Parshuram Monochrome Orchids Background Wallpaper

Parshuram Painted Art Wallpaper

Parshuram Glacier Mountains Wallpaper

Parshuram At Lake Wallpaper

Parshuram Parashu Weapon Wallpaper

Parshuram Vibrant Gradient Wallpaper




























Join our Telegram Channel https://t.me/eduvibeschannel

if you want to share your story or article for our Blog please email us at educratsweb[@]gmail.com


Post a Comment

0Comments

Post a Comment (0)